कभी तो ऐसा लगता है कि देश में शांति है और वहाँ का शासक वर्ग सत्ता में मज़बूती से स्थापित है — लेकिन अगले ही दिन क्रांतिकारी जनता जलते हुए संसद भवन के सामने खड़ी मिलती है। पुलिस, सांसद, और प्रधानमंत्री भाग चुके होते हैं। हाल ही में नेपाल से जो तस्वीरें और वीडियो सामने आए, वे हैरान करने वाले थे। उतनी ही आश्चर्यजनक बात यह है कि नेपाल के यह दृश्य अनोखे नहीं, बल्कि श्रीलंका, बांग्लादेश, केन्या और इंडोनेशिया से मिलते-जुलते हैं।
इन घटनाओं का क्या मतलब है? कुछ जल्दबाज़ और उत्साहित लेफ्टिस्ट यह सोचने लगे हैं कि जिस भी तरफ़ यह क्रांतिकारी लहर दौड़ रही है, उन्हें खुद को इन लहरों की दिशा में बहने देना चाहिए। वे जनता के चीयरलीडर की तरह व्यवहार कर रहें हैं, लेकिन क्रांति के दौरान जनता को यह बिल्कुल नहीं चाहिए।
कुछ अन्य लोग इन घटनाओं को और भी ज़्यादा नकारात्मक नज़रिए से देख रहे हैं। वे नेपाल, श्रीलंका या इनमें से किसी भी अन्य उदाहरण को देखते हैं, और इनकी तुलना वे अपनी मनघड़ंत या काल्पनिक आदर्श क्रांतियों से करने लगते हैं।
उन्हें सोवियत दिखाई नहीं पड़ते। उन्हें मज़दूर परिषदें नहीं मिलतीं। बल्कि वे पाते हैं कि जनता, जहाँ तक वह संगठित है, आकस्मिक नेतृत्व या केवल सोशल मीडिया हैशटैग के इर्द-गिर्द संगठित है। न ही उन्हें लाल झंडे मिलते है। उन्हें केवल श्रीलंकाई, केन्याई, बांग्लादेशी और नेपाली झंडे मिलते हैं।
उन्हें इन आंदोलनों की कुछ माँगें कमज़ोर और सीमित लगती हैं, खासकर कि समाजवादी क्रांति की योजनाओं की तुलना में। और वे इस निर्विवाद तथ्य की ओर इशारा करना शुरू कर देते हैं कि अब तक इन क्रांतियों ने शायद ही कोई बुनियादी बदलाव किया हो। वे तिरस्कारपूर्वक घोषणा कर देते हैं कि ये कोई क्रांतियाँ नहीं हैं, जिसके बाद वे यह कहकर वापस सो जाते हैं कि जब असली क्रांति आएगी, वे तब जाग जाएंगे।
सच्चे कम्युनिस्ट होने के नाते, हम न तो घटनाओं की सतह से प्रभावित हो सकते हैं, और न ही हम क्रांतियों को पूर्वकल्पित योजनाओं के अनुरूप होने की उम्मीद कर सकते हैं। हमें ठोस घटनाओं के सार तक पहुँचना होगा और ठोस सबक सीखने होंगे।
इस संदर्भ में, इन घटनाओं के प्रति हमारा क्या दृष्टिकोण है?
श्रीलंका से लेकर नेपाल तक, इन सभी क्रांतियों की अपनी अनूठी विशेषताएँ हैं। इसके बावजूद, स्पष्ट और अचूक विधियां या पैटर्न उभर रहे हैं। कुल मिलाकर, ये हमें उस नए युग के चरित्र के बारे में बहुत कुछ बताते हैं जिसमें हम प्रवेश कर चुके हैं।
जनता की शक्ति
सबसे पहले यह कहना होगा कि परिश्रम या वीरता के संदर्भ में, हम क्रांतिकारी जनता से इससे अधिक की अपेक्षा नहीं कर सकते थे। उन्होंने दिखा दिया है कि उनके पास कितनी अपार शक्ति और साहस है।
तीन साल पहले, जब श्रीलंका में जनता राष्ट्रपति भवन की ओर बढ़ी, तो सबसे पहले गिरने वाले डोमिनोज़ के रूप में, पुलिस को कीड़े-मकौड़ों की तरह खदेड़ दिया गया। गोटाबाया राजपक्षे भाग गए। समाज में कोई भी अन्य शक्ति जनता की इस शक्ति का दूर-दूर तक मुकाबला नहीं कर सकती थी।

क्रांति उसी समय उस शासन और उसके बनाए राजनैतिक ढांचे को ध्वस्त कर सकती थी। वास्तव में, सत्ता सड़कों पर मौजूद जनता के हाथों में थी। तब बस इतना ही बाकी था कि पुरानी सत्ता को खंडित घोषित कर दिया जाए। लेकिन जनता को इस बात का एहसास नहीं था कि सत्ता उनके हाथ में है, और कोई भी पार्टी इतनी अधिकारपूर्ण नहीं थी कि उनके नाम पर सत्ता लेकर नेतृत्व कर सके।
इसलिए, जिस शाम यह शानदार जीत हासिल हुई, श्रीलंका में क्रांतिकारी जनता के पास राष्ट्रपति भवन खाली करके घर लौटने के अलावा कोई और चारा नहीं था। इसके बाद उसी पुरानी और तिरस्कृत संसद ने, जिसकी बहुमत अभी भी राजपक्षे की पार्टी के पास थी, एक नए राष्ट्रपति का चयन किया।
5 अगस्त 2024 को बांग्लादेश में भी सत्ता अधर में लटकी हुई थी। जिस पुलिस ने पिछले हफ़्तों में आतंक का राज चलाया था, उस पुलिस ने ‘हड़ताल’ की घोषणा कर दी। दरअसल, यह ‘हड़ताल’ इसलिए की गई थी क्योंकि जनता के क्रोध से भयभीत होकर पुलिस सड़कों से पलायन कर चुकी थी। देश के 600 में से 450 पुलिस स्टेशन सुलगते खंडहर बन गए थे। घृणास्पद प्रधानमंत्री शेख हसीना को सेना के हेलीकॉप्टर में घुसा कर देश से बाहर ले जाकर बचाना पड़ा था।
क्रांतिकारी जनता के पास ताकत थी और वे अपनी क्रांतिकारी सरकार बना सकते थे। लेकिन, एक बार फिर, उन्हें अपनी शक्ति का एहसास नहीं था। पुरानी सत्ता हार चुकी थी। पुराने जनरलों और न्यायाधीशों को हटा दिया जाना चाहिए था और हटाया जा सकता था। इसके बजाय, छात्र नेता पराजित जनरलों से बातचीत करने चल दिए। वे एक पूर्व बैंकर के नेतृत्व वाली अंतरिम सरकार पर सहमत हुए, जहाँ वे प्रतीकात्मक, कठपुतली मंत्रालयों में बैठने के लिए राज़ी हो गए।
केन्या में, इतने बलिदानों और इतने खून-खराबे के बाद भी, कुछ हासिल नहीं हुआ है। विलियम रूटो सत्ता में अभी भी जमे हुए हैं।
इन सभी मामलों का बड़ा रहस्य यह है: जनता द्वारा प्रदर्शित शक्ति और साहस के बावजूद इतना कम बदलाव क्यों आया?
यह क्रांतिकारी नेतृत्व के अभाव का परिणाम है जिसके बारे में हम आगे भी चर्चा करेंगे। नेतृत्व के बिना, क्रांति के कार्यक्रम, नीतियों और अंतिम लक्ष्य को लेकर भ्रम की स्थिति बनी रहती है। इसी कारण, ये सभी क्रांतियाँ बीच में ही रुक गई हैं।
लेकिन जो लोग कहते हैं कि ये क्रांतियाँ थीं ही नहीं, उन्हें हम कहते हैं कि इन परिस्थितियों में किसी अन्य प्रकार की क्रांति संभव ही नहीं थी। व्लादिमीर लेनिन ने इस सवाल का जवाब उन लोगों को दिया था जिनके अनुसार आयरलैंड में 1916 के ईस्टर विद्रोह का कोई क्रांतिकारी महत्व नहीं था, क्योंकि उनके लिए वह बस एक छोटा सा गदर था:
“यह कल्पना करना कि उपनिवेशों और यूरोप में छोटे राष्ट्रों के विद्रोहों के बिना, पेटी-बुरजुआ वर्ग के क्रांतिकारी विस्फोटों के बिना, उसके सभी पूर्वाग्रहों के साथ, जमींदारों, चर्च, राजशाही, विदेशी ताकतों आदि के उत्पीड़न के खिलाफ गैर-वर्ग-चेतन श्रमजीवी और अर्ध-श्रमजीवी जनता के आंदोलनों के बिना एक सामाजिक क्रांति संभव है – यह कल्पना करना सामाजिक क्रांति को नकारने के समान है। केवल वे लोग जो कल्पना करते हैं कि एक जगह एक सेना खड़ी होकर कहेगी, ‘हम समाजवाद के पक्ष में हैं’ और दूसरी जगह एक और सेना कहेगी, ‘हम साम्राज्यवाद के पक्ष में हैं’ और मानते हैं कि यही सामाजिक क्रांति होगी, केवल वे ही जो इस तरह की हास्यास्पद पांडित्यपूर्ण राय रखते हैं, आयरिश विद्रोह को ‘छोटा गदर’ कहकर बदनाम कर सकते हैं। जो कोई भी ‘शुद्ध’ सामाजिक क्रांति की अपेक्षा करता है, वह अपने जीवन में किसी भी क्रांति को नहीं देख पाएगा। ऐसा व्यक्ति क्रांति को समझने का दिखावा करता है, बिना यह जाने कि क्रांति क्या है।” (लेनिन, आत्मनिर्णय पर चर्चा का सारांश)
नेतृत्व की समस्या
आज एक स्पष्ट नेतृत्व की कमी है। लेकिन मुद्दा यह है कि जनता की परिस्थितियाँ इतनी विकट हैं कि वे इस फ़िलहाल-लुप्त नेतृत्व के सामने आने तक प्रतीक्षा नहीं कर सकते। युवा तब तक धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा करने के लिए बिल्कुल भी इच्छुक नहीं हैं जब तक कि परिस्थितियाँ बिल्कुल आदर्श न हो जाएँ।
इन सभी क्रांतिकारी उथल-पुथलों की एक और उल्लेखनीय विशेषता यह है कि युवाओं की एक पूरी नई पीढ़ी किस तरह से उभर कर सामने आई है। एक अच्छे भविष्य से वंचित, इनके पास खोने के लिए कुछ ज्यादा नहीं, और पाने के लिए सबसे अधिक है। अतीत की हार के बोझ से मुक्त सबसे ऊर्जावान सामाजिक भाग होने के कारण, युवा हर जगह बदलाव चाहने वालों की अग्रिम पंक्तियों में मिलते हैं।

नेपाल और केन्या में, लोग इसे ‘जेन-ज़ी क्रांति’ कह रहे हैं। सर्बिया और बांग्लादेश में, छात्रों के विशाल आंदोलनों ने, बिजली की छड़ की तरह, लाखों आम मज़दूरों और ग़रीबों के गुस्से का अपनी ओर संचय किया है।
हालाँकि अलग-अलग देशों में भिन्नताएँ हैं, फिर भी जो थोड़ा-बहुत नेतृत्व उभरा है, वह आम तौर पर युवाओं ने ही दिया है। क्या इस कच्चे नेतृत्व से भ्रम पैदा होता है? बिलकुल होता हैं। यह किसकी गलती है? हम ज़ोर देकर कहते हैं: यह मज़दूर संगठनों के नेताओं की गलती है, जिनका काम नेतृत्व करना है।
कड़वा तथ्य यह है कि उनकी कायर अनुपस्थिति युवाओं की बहादुरी के आगे शर्मनाक दिखती है।
जिस तरह केन्या और बांग्लादेश में जनरलों ने सैनिकों को क्रांति के प्रभाव से संक्रमित होने से बचाने के लिए उन्हें बैरकों में बंद रखा था, उसी तरह मज़दूर वर्ग की भारी टुकड़ियों को मज़दूर नेताओं ने ‘बैरक में बंद’ कर रखा है।
यह अपराध है। केवल मज़दूर वर्ग के हाथों में ही पूँजीवाद को जड़ से उखाड़ फेंकने की शक्ति है, जो जनता के सभी दुखों और पीड़ाओं का असली स्रोत है।
युवाओं ने, कई मामलों में, मज़दूरों से जुड़ने की सराहनीय कोशिश की है। सर्बिया के छात्रों ने ट्रेड यूनियनों से अलेक्जेंडर वुसिक के राज के विरुद्ध एक आम हड़ताल आयोजित करने का आह्वान किया और कार्यालयों पर ज़बोरोवी (जनसभाएँ) बनाने का आह्वान किया। लेकिन ट्रेड यूनियन कार्यालयों में संकीर्ण सोच वाले नौकरशाहों ने ऐसे सभी आह्वानों का विरोध किया, क्योंकि उन्हें लगा कि यह उनकी अपनी छोटी-सी जागीर पर अतिक्रमण है।
केन्या में, COTU-K ट्रेड यूनियन केंद्र के दयनीय महासचिव ने तो रूटो के प्रतिगामी वित्त विधेयक 2024 का बचाव भी किया, जिसने पूरे आंदोलन को जन्म दिया था!
ऐसे ही, 2022 में जब श्रीलंका के अरागालया (‘संघर्ष’) के चरम पर, एक आम हड़ताल का विचार व्यापक रूप से प्रसारित हुआ। लेकिन ट्रेड यूनियनों ने एक दिवसीय हड़ताल के अलावा किसी और चीज़ का आह्वान करने से इनकार कर दिया।
भ्रष्टाचार का विरोध
इन सभी आंदोलनों के दौरान, हमने देखा है कि कैसे जनता ने अपने क्रोध को भड़काने वाले सबसे स्पष्ट और सबसे प्रभावशाली प्रतीकों को निशाना बनाया है।
देश पर हावी क्रूर और भ्रष्टाचारी शासक गुटों ने जनता का सारा गुस्सा अपनी ओर आकर्षित किया है: श्रीलंका में राजपक्षे गुट; बांग्लादेश में हसीना गुट; केन्या में रूटो गुट; नेपाल में शासक और उनके ‘भाई-भतीजे’; इंडोनेशिया में खुद को शानदार वेतन वृद्धि देने वाले राजनेता; सर्बिया में वुसिक और उसके गुंडे।
श्रीलंका, केन्या, बांग्लादेश, नेपाल, इंडोनेशिया और अन्य जगहों पर जनता सबसे पहले भ्रष्टाचार के मुद्दे के खिलाफ हड़ताल पर रही है।
कई संशयवादी इस ओर इशारा करते हुए उपहास करते हैं कि इससे उनकी यह बात साबित होती है कि ये क्रांतियाँ नहीं हैं। उनका कहना है कि असली क्रांति पूंजीवाद के खिलाफ होगी, भ्रष्टाचार के खिलाफ नहीं।

भ्रष्टाचार दीमक-जैसी पूँजीवादी व्यवस्था का सबसे प्रबल और चरम लक्षण मात्र है। जब जनता अपने चारों ओर व्याप्त धन-संपत्ति के बारे में सोचती है, तो वह अन्याय, घृणा और आक्रोश की भावना में डूब जाती है। लेकिन, जैसा कि वे समझ जाते हैं, उस धन को एक भ्रष्ट वर्ग द्वारा लूटा जा रहा होता है।
पश्चिमी टिप्पणीकार भ्रष्टाचार को तथाकथित ‘तीसरी दुनिया’ की एक दुर्भाग्यपूर्ण विशेषता और अविकसितता का स्रोत बताते हैं। बेशक, वे ऐसा साम्राज्यवाद के निशानों को छिपाने के लिए करते हैं, जो गरीबी और अविकसितता का सबसे बड़ा कारण है।
लेकिन इसी तरह का भ्रष्टाचार सभी पूँजीवादी देशों में व्याप्त है, खासकर यूरोप में। सर्बिया में नोवी सैड की छत ढहने और ग्रीस में टेम्पी रेल दुर्घटना के अपराध के बीच समानता पर विचार करना ज़रूरी है, जिसने भारी जनसमूह को सड़कों पर ला दिया था। दोनों ही मामलों में, भ्रष्ट राजनेता दोषी हैं। वे रिश्वतखोरी और भ्रष्ट सौदों से कमाए गए पैसों का हिसाब लगाते हैं, जबकि गरीब लोग भ्रष्टाचार से हुई तबाही से अपनी जान गँवाते हैं।
इस बीच, श्रीलंका या बांग्लादेश में एक गरीब रिक्शा चालक को अपने शासकों से खुद को अलग करने वाली विशाल खाई को महसूस करने के लिए बस अपनी भूख की पीड़ा की तुलना कोलंबो के लोटस टॉवर या गंगा पार पद्मा ब्रिज जैसी भव्य और दिखावटी परियोजनाओं से करने की ज़रूरत है। जहाँ जकार्ता गरीबों के लिए एक जीता-जागता नरक है, वहीं इंडोनेशियाई सरकार वर्तमान राजधानी की गरीबी और गंदगी से कई कोस दूर एक नई, चमकदार राजधानी बनाने में व्यस्त है।
जब श्रीलंका, इंडोनेशिया, बांग्लादेश और नेपाल में जनता शासन के खिलाफ उतरी, तो उन्होंने इन लाड़-प्यार से पले पाखंडियों, इन ‘राष्ट्र के नेताओं’ पर ही हमला बोल दिया। उन्होंने सहज रूप से इन सड़े हुए गुटों पर सीधा प्रहार किया और दुनिया को संसद भवन पर धावा बोलने, राष्ट्रपति भवन में तोड़फोड़ करने, पार्टी कार्यालयों और सांसदों के आवासों को जलाने के दृश्य दिखलाए।
जनता ने इन भ्रष्ट गुंडों पर प्रहार करके सही सहज ज्ञान का परिचय दिया, जो पदाधिकारों के माध्यम से खुद को अनगिनत गुनाहों से समृद्ध बनाते हैं। हालाँकि अंत में अगर इन लोगों को बाहर कर दिया जाता है, तो दूसरे लोग उनकी जगह लेने के लिए तैयार बैठे हैं। मुद्दा यह है कि भ्रष्टाचार को खत्म करने के लिए हमें पूंजी के शासन को खत्म करना होगा। और इसका मतलब है निजी संपत्ति को खत्म करना और पूंजीवादी राज्य के सशस्त्र बलों को नष्ट करना, जो शासक वर्ग की शक्ति का वास्तविक स्रोत हैं।
सभी दलों से घृणा
इनमें से लगभग सभी आंदोलनों में यह भावना व्याप्त है कि केवल वर्तमान शासक गुट ही नहीं, बल्कि सभी राजनेता और दल एक-दूसरे जितने बुरे हैं। तथाकथित ‘विपक्ष’ भी अधिकांश मामलों में कम भ्रष्ट हुआ साबित नहीं हुआ है।
और केवल भ्रष्टाचार के लिए ही उनसे घृणा नहीं की जाती। चूंकि वे उसी घृणित संसदीय खेल में भाग लेते हैं, और झूठ से भरी वही भाषा बोलते हैं, मौजूदा सत्ताधारियों के साथ-साथ विपक्ष भी कलंकित है।
इस प्रकार, श्रीलंका में, भ्रष्ट राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे पर निशाना साधते हुए, ‘गोटा घर जाओ’ के नारे के साथ-साथ, जनता ने ‘225 घर जाओ’ का नारा भी बुलंद किया – यानी सभी 225 सांसदों को बाहर करो।
केन्या में, युवा सांसदों को ‘एम-पिग्स’ यानि ‘सूअर-सांसद’ कहते हैं। बिलकुल सही! गरीबों को और भी गरीब बनाने के लिए कानून बनाते हुए, ये सभी दलों के ‘एम-पिग्स’ अथाह तनख्वाहों और विशेषाधिकारों के गर्त में डूबे रहते हैं। केन्याई युवा रूटो से कुछ लेना-देना नहीं चाहते, लेकिन ओडिंगा जैसे विपक्षी नेताओं से भी उनका कोई लेना-देना नहीं है, जो क्रांतिकारी युवाओं के डर से काँपते हुए रूटो के पीछे दुबककर छुपते है पाए गए।
उनका नारा, ‘बिना जनजाति के, बिना नेता के, बिना दल के’, उन सभी जनजातिवादी-पूंजीवादी लुटेरों, जिनको ‘राजनीतिक दल’ कहा जाता है, के प्रति एक बहुत ही स्पष्ट और सहज नामंजूरी को दर्शाता है।

लेकिन अगर सभी मौजूदा राजनैतिक दल शासक वर्ग के इस या उस भ्रष्ट भुजा के हथियार हैं, तो क्या इसका मतलब यह है कि मज़दूर और युवा बिना किसी पार्टी के काम चला सकते हैं? ऐसा नहीं है। हालात एक ऐसी पार्टी और नेतृत्व की माँग करते हैं जो उनके हितों का प्रतिनिधित्व कर सके।
लेफ्ट भी उतना ही बुरा
सभी राजनैतिक दलों को नकारना इस तथ्य को भी दर्शाता है कि ज़्यादातर मामलों में, तथाकथित ‘लेफ्ट’ पार्टियाँ भी दक्षिणपंथी पार्टियों जितनी ही बुरी हैं!
कुछ मामलों में, ‘लेफ्ट’ दल भी दक्षिणपंथी दलों जितना ही भ्रष्ट हो चुके हैं और अक्सर, इन ईर्ष्यालु मौकापरस्त ‘लेफ्ट’ दलों की हरकतों की वजह से ‘लेफ्ट’ शब्द से ही घृणा होने लगती है।
यह सिर्फ़ लेफ्ट की किसी नैतिक कमी या नाकामी का नतीजा नहीं है। इसकी जड़ें झूठे सिद्धांतों में हैं। इस दयनीय स्थिति के लिए ख़ास तौर पर स्टालिनवाद को, उसके ज़हरीले ‘चरणों के सिद्धांत’ को ज़िम्मेदार ठहराया जाना चाहिए। इसके कारण कई लेफ्ट दल सीधे तौर पर शासक वर्ग के सबसे मौकापरस्त और सड़े हुए तत्वों के साथ जुड़ गए हैं।
उस सिद्धांत के अनुसार, अविकसित देशों में सबसे ज़रूरी काम समाजवादी काम नहीं, बल्कि बुर्जुआ-लोकतांत्रिक काम हैं। इसमें कुछ सच्चाई ज़रूर है।
नेपाल, बांग्लादेश, श्रीलंका और इंडोनेशिया जैसे पिछड़े पूंजीवादी देशों में जनता की पहली और ज़रूरी इच्छा मौजूदा राजनैतिक ढांचे का भ्रष्ट और तानाशाह शासन को तोड़ना है। इन शासन व्यवस्थाओं के अधीन रहने वाली जनता आज़ादी की साँस लेना चाहती है — वे लोकतांत्रिक अधिकार चाहते हैं।
इन कार्यों में अपने आप में कुछ भी स्वाभाविक रूप से समाजवादी नहीं है। मार्क्सवादी इन्हें ‘बुर्जुआ-लोकतांत्रिक’ कार्य कहते हैं।
लेकिन इस आधार पर कि क्रांति को पहले बुर्जुआ-लोकतांत्रिक कार्यों को पूरा करना होता है, स्टालिनवाद का ‘चरणवादी’ सिद्धांत यह निष्कर्ष निकालता है कि हमें क्रांति का नेतृत्व करने के लिए बुर्जुआ वर्ग के एक ‘प्रगतिशील’ धड़े की तलाश करनी चाहिए। पूंजीवादी विकास के वर्षों बाद ही, जिसका उद्घाटन क्रांति के राष्ट्रीय बुर्जुआ चरण से माना जाता है, देश अंततः समाजवाद के लिए परिपक्व माना जाता है।
लेकिन एक छोटी सी समस्या है! आज किसी भी पिछड़े देश में पूंजीपति वर्ग का ऐसा कोई ‘प्रगतिशील’ पक्ष नहीं है। यह वर्ग पूरी तरह से परजीवी है, जो साम्राज्यवाद पर पूरी तरह निर्भर है। यह क्रांतिकारी जनता से, और खासकर समाज के एकमात्र निरंतर क्रांतिकारी वर्ग, यानी मजदूर वर्ग से, भयभीत रहता है। उनकी सभी नीतियाँ, कार्य और कथन इस बात को साबित करते हैं।
पूंजीपति वर्ग के एक ‘प्रगतिशील’ पक्ष के भ्रम की तलाश में, स्टालिनवादी खुद को किसी न किसी सड़े हुए गुट के पाले में पाते हैं।
बांग्लादेश की कम्युनिस्ट पार्टी ने दशकों तक हसीना और उनके पिता शेख मुजीबुर्रहमान की अवामी लीग का समर्थन किया था। उन्होंने अवामी लीग को बांग्लादेशी राष्ट्रीय मुक्ति के ‘प्रगतिशील’ रक्षक के रूप में चित्रित किया, और इसके प्रति अपने निरंतर समर्थन को इस आधार पर उचित ठहराया कि ‘धर्मनिरपेक्ष’ अवामी लीग, जमात-ए-इस्लामी के धार्मिक कट्टरपंथियों की तुलना में कम दुष्ट है।
अब वे हसीना की बदनामी में भागीदार हैं, जबकि जमात-ए-इस्लामी के प्रतिक्रियावादी या रिएक्शनरी खुद को हसीना के अवामी लीग शासन के शहीदों के रूप में प्रस्तुत कर सकते हैं।
भ्रष्टाचार के प्रश्न को पूंजीवाद से जोड़ने वाली कोई क्रांतिकारी पार्टी न होने के कारण, इस्लामवादी आगे आए और स्वयं ‘भ्रष्टाचार से लड़ने’ की बात करने लगे। वे कहते हैं, “हाँ, हम भ्रष्ट राजनेताओं के भी खिलाफ हैं। हमें स्वच्छ राजनीति चाहिए, पुराने की जगह नए चेहरे चाहिए।” ये प्रतिक्रियावादी भ्रष्टाचार के लिए पूंजीवाद से दोष हटाकर अन्य कथित कारणों, जैसे धर्मनिरपेक्षतावादियों में नैतिकता या धर्मनिष्ठा की कमी, पर दोष मढ़ते हैं।
शायद स्टालिनवादी ‘चरणवाद’ सिद्धांत का सबसे निंदनीय उदाहरण नेपाल और नेपाल के राजनैतिक मंच पर हावी माओवादियों में देखने को मिलता है।

एक दशक लंबे विद्रोह के बाद, 2006 में माओवादी एक क्रांतिकारी लहर के सहारे सत्ता में आए। उन्होंने क्या किया? उन्होंने नेपाली कांग्रेस पार्टी जैसी खुले तौर पर बुर्जुआ पार्टियों के साथ मिलकर तुरंत एक साझा 12-सूत्रीय समझौते पर हस्ताक्षर कर दिए, और तब से देश इन बुर्जुआ तत्वों के साथ तथाकथित ‘कम्युनिस्टों’ के गठबंधन द्वारा शासित है।
इसके लिए उनका तर्क यह था कि राजशाही को दबाने और एक गणतंत्र की स्थापना के लिए सभी ‘प्रगतिशील’, ‘सामंतवाद-विरोधी’ यानि फ्यूडल-विरोधी या जागीरदारी-विरोधी ताकतों को एकजुट होना होगा। इससे नेपाली पूंजीवाद का विकास होगा, जो एक निश्चित स्तर पर नेपाल में समाजवादी क्रांति की नींव रखेगा।
लेकिन 2008 से 2025 के बीच कोई प्रगति दर्ज नहीं की गई है। मानव विकास सूचकांक में नेपाल 193 देशों में 140वें स्थान से गिरकर 145वें स्थान पर आ गया है। देश के हज़ारों युवा हर साल गरीबी से भागकर विदेश में काम करने जाते हैं, यहाँ तक कि देश के सकल घरेलू उत्पाद, यानि जीडीपी का एक-तिहाई हिस्सा विदेशों से आने वाले धन से बनता है।
डेढ़ दशक तक पूँजीपति वर्ग की ओर से शासन करने के बाद, माओवादियों के अपने ही राजनेता जनता की घृणा का पात्र बन चुके हैं। वे भी खुलेआम बुर्जुआ पार्टियों की तरह भ्रष्टाचार में डूबे हुए हैं।
हाल की घटनाओं को जन्म देने वाले ‘नेपो बेबीज़’ में, जिनकी अथाह संपत्ति ने नेपाल की जनता को क्रोधित किया था, कौन-कौन शामिल हैं? स्मिता दहल जैसे लोग, जो एक नेपाली मज़दूर के औसत मासिक वेतन से कई गुना ज़्यादा कीमत के हैंडबैग दिखाती हैं, जिनके दादा कोई और नहीं, बल्कि माओवादी गुरिल्लाओं के पूर्व नेता, चेयरमैन प्रचंड हैं।
रंगीन क्रांतियाँ?
नए ‘बहुध्रुवीय’ विश्व के गुणगान के बीच एक दृष्टिकोण यह है कि हम जो देख रहे हैं वह क्रांति के बिल्कुल विपरीत है। वे कहते हैं कि ये प्रति-क्रांतियाँ या ‘रंगीन’ क्रांतियाँ हैं। यानी, पश्चिमी खुफिया एजेंसियों द्वारा जनता को बरगलाने की धूर्त साजिशें।
अरब स्प्रिंग के बारे में भी अक्सर यही बात कही जाती रही है, जो वर्तमान क्रांतियों से कई मामलों में समान थी। हम समझ सकते हैं कि कुछ लोग क्यों ग़लतफ़हमी में इसे किसी साज़िश का नतीजा समझते हैं। मिस्र में मज़दूर वर्ग सत्ता हथियाने में नाकाम रहा। नतीजा? मुबारक की जगह अल-सीसी ने सत्ता संभाली और आज मिस्र में हालात 2010 के मुक़ाबले सौ गुना ज़्यादा मुश्किल हैं। लीबिया और सीरिया में, साम्राज्यवाद इन देशों को बर्बर गृहयुद्ध में धकेलने में कामयाब रहा।
यह तथ्य कि क्रांतियों की वर्तमान लहर का केंद्र दक्षिण एशिया है, और क्योंकि कुछ राज्य चीन की ओर झुक रहे हैं, इस विचार को बल मिलता है कि यह पश्चिम की ओर से सुनियोजित सत्ता परिवर्तन है।
इस सोच में एक विडंबना यह है कि हम जो देख रहे हैं वह रंगीन क्रांतियों की लहर है। ‘बहुध्रुवीयता’ के समर्थक दावा करते हैं कि लेफ्ट को ‘वैश्विक दक्षिण’ में ‘प्रगतिशील’, ‘साम्राज्यवाद-विरोधी’ बुर्जुआ शासन व्यवस्थाओं का समर्थन करके साम्राज्यवाद से लड़ना चाहिए। लेकिन वे इस तथ्य को अनदेखा कर देते हैं कि लेफ्ट की बदनामी का कारण, जिससे प्रतिक्रियावादियों के लिए अनुकूल स्तिथि भी पैदा हुई, यह है कि लेफ्ट ने वर्षों तक एक ‘प्रगतिशील’, ‘साम्राज्यवाद-विरोधी’ राष्ट्रीय पूंजीपति वर्ग के स्टालिवादी भ्रम को बनाए रखा!
यह विचार कि नेपाल, बांग्लादेश, श्रीलंका, या इंडोनेशिया ‘रंगीन क्रांतियों’ के मामले हैं, गलत है। षडयंत्रों में विश्वास करने से यह साफ नहीं होता कि हम ऐसा जनाक्रोश क्या देख रहे हैं। लेकिन इसी गलत विचार में सच्चाई का एक अंश भी छिपा है। क्रांतिकारी नेतृत्व के बिना, प्रति-क्रांति हावी हो सकती है, साम्राज्यवादियों को हस्तक्षेप करने के अवसर मिल सकते हैं, और स्थिति बहुत ही प्रतिक्रियावादी दिशा में बिगड़ सकती है।
हमें स्पष्ट रूप से कहना होगा कि इन क्रांतियों का लेखा-जोखा इस बात की पुष्टि करता है, और यह एक ऐसा सबक है जिससे सीख लेनी चाहिए।
सीरिया में, श्रमजैविकों के लिए नीतियों का कार्यक्रम तैयार न कर पाने की विफलता की वजह से साम्राज्यवादियों ने आंदोलन की कमान अपने हाथों में ले ली और उसे इस्लामी विद्रोह में तब्दील होने का मौका दिया। इसी तरह, 2018 का ईरानी युवा विद्रोह, एक स्पष्ट वर्गीय दृष्टिकोण विकसित करने में विफल रहा और एक पश्चिम-समर्थित उदारवादी आंदोलन बन गया।

केन्या में, रुटो सत्ता में बने हुए हैं। यह एक कठोर सच्चाई है कि युवा कुछ ही दिनों के प्रदर्शन के बलबूते पर उन्हें गिराने में विफल रहे हैं। बांग्लादेश और श्रीलंका में, पुरानी सरकार को गिरा दिया गया। और फिर भी, तीनों ही जगहों पर, सरकारें आईएमएफ के इशारे पर मितव्ययिता यानि ऑस्टेरिटी अपना रही हैं और मजदूर वर्ग और गरीबों पर हमला कर रही हैं। सभी इस नीति को लागू करने के लिए मजबूर हैं क्योंकि पूंजीवाद के तहत यही एकमात्र संभव नीति है। श्रीलंका में ‘पुनरजीवन’ के लिए भारी उत्साह के बीच, पिछले साल तक गरीबी दर 2022 की शुरुआत की तुलना में दोगुनी रही। युवा, अगर संभव हो तो, पलायन करना चाहते हैं, वरना खुद को जीवित रखने के लिए अंतहीन घंटों काम करता पाएँगे। बांग्लादेश में, जुलाई 2024 में हुए आंदोलन के बाद से लगभग 21 लाख नौकरियाँ चली गई हैं। स्थिति लगातार बिगड़ती जा रही हैं। सच तो यह है कि जनता की पीड़ा और असंतोष का मूल कारण पूँजीवाद का संकट है, और इन क्रांतियों ने पूँजीवाद की जड़ पर प्रहार नहीं किया। न ही भ्रष्टाचार समाप्त हुआ है। बांग्लादेश में, छात्र नेताओं ने अपनी अधिकांश प्रतिभा खो दी है। सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि बांग्लादेश में क्रांति को जन्म देने वाले कोटा प्रावधानों का क्या हुआ — 1971 के स्वतंत्रता संग्राम के दिग्गजों के परिवारों को मिलने वाली सरकारी नौकरियों के भेदभावी कोटे को समाप्त करने के लिए ही पिछले साल छात्र एकत्रित हुए थे। इस व्यवस्था के द्वारा वास्तव में हसीना और अवामी लीग शासन के चापलूसों को नौकरियां प्रदान की जाती थी।
इस कोटा प्रणाली को खत्म कर दिया गया… और उसकी जगह जुलाई 2024 के विद्रोह के दिग्गजों के परिवारों के लिए एक नई कोटा प्रणाली लागू कर दी गई!
पूंजीवाद में लूट का पुनर्बँटवारा ही संभव है, लेकिन लूट का कभी अंत नहीं होता।
अधूरी प्रक्रियाएँ
क्रांतियाँ केवल एक अंक के नाटक नहीं होतीं, और यह कहानी का अंत नहीं है। श्रीलंका, नेपाल और बांग्लादेश में, घृणास्पद पुरानी सत्ता को गिरा दिया गया। जनता ने शुरुआती जीत हासिल की जिसमें सब को चौंका दिया। लेकिन करीब से देखने पर पता चलता है कि यह जीत वास्तविक से ज़्यादा दिखावटी थी। सत्ता का मुखिया चला गया है, लेकिन पुराना तंत्र, पुराना शासक वर्ग, अभी भी राज कर रहा है।
हमने यहाँ जो देखा और फरवरी 1917 में रूस में जो हुआ, उसके बीच एक समानता है।
रूसी मज़दूर एक क्रांतिकारी आम हड़ताल में फूट पड़े। कुछ ही दिनों में, रूस के ज़ार यानि सम्राट को पद छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा। एक अस्थायी सरकार स्थापित हुई। लेकिन जब उत्साह कम हुआ, तो पता चला कि पुराने राजतंत्रवादी सेनापति और नौकरशाह अपनी जगह पर बने हुए थे। पूँजीपति अभी भी कारखानों के मालिक थे, ज़मींदारों के पास अभी भी सारी ज़मीन थी। यह ज़ारशाही थी, लेकिन ज़ार के बिना।
जब तक पुराने राज्य को ध्वस्त नहीं कर दिया जाता और मज़दूर स्वयं सत्ता हासिल नहीं कर लेते, तब तक जीत पूरी नहीं होती। 1917 की अक्टूबर क्रांति में ऐसा ही हुआ। यह केवल बोल्शेविक पार्टी की उपस्थिति के कारण ही संभव हो सका, जिसने क्रांति के लक्ष्यों को स्पष्ट रूप से आगे रखा और रूस के मज़दूर वर्ग और अन्य उत्पीड़ित जनता को अपने झंडे का नेतृत्व दिया।
अगर यह नेतृत्व न होता, तो पुराना शासक वर्ग रूस को बर्बरता की ओर धकेल सकता था। गृहयुद्ध और नरसंहार सिर पर मंडरा रहा होता। पूरी संभावना थी कि रूस साम्राज्यवादी शक्तियों के बीच बँट गया होता और लाखों लोग मारे गए होते।
दूसरे शब्दों में, रूस का भी वही हश्र होता जो आज सूडान भुगत रहा है। वहाँ, क्रांतिकारी जनता के पास 2019 में सत्ता हथियाने का एक बेहतरीन मौका था। नेतृत्व ने इसे हाथ से जाने दिया, और अब देश दो प्रतिक्रियावादी सशस्त्र टोलियों और उनके पीछे खड़ी विभिन्न साम्राज्यवादी शक्तियों के बीच एक बर्बर गृहयुद्ध में टुकड़े-टुकड़े हो रहा है।
निःसंदेह, सूडान में जैसा विनाशकारी प्रतिक्रियावादी परिणाम हम देख रहे हैं, वह किसी भी तरह से पूर्वनिर्धारित नहीं था। मज़दूर वर्ग की ताकत एवं कई अन्य कारण किसी क्रांति का परिणाम निर्धारित करने में भूमिका निभाते हैं। लेकिन फिर भी यह एक कठोर चेतावनी है।
अगला कौन है?
हमने जो क्रांतिकारी घटनाएँ देखी हैं, वे संभवतः श्रीलंका, बांग्लादेश, नेपाल, इंडोनेशिया, केन्या और अन्य जगहों पर कई वर्षों तक जारी रहेंगी। उतार-चढ़ाव होंगे और निस्संदेह नए विद्रोही भी उभरेंगे।

अगर 1903 से 1917 तक बोल्शेविज़्म का इतिहास हमें एक बात सिखाता है, तो वह यह कि अगर पार्टी को निर्णायक भूमिका निभानी है, तो उसे क्रांति से पहले ही तैयार होना होगा। हमें यह कहने में संकोच है कि क्रांति की परिस्थितियों में एक क्रांतिकारी पार्टी का निर्माण नहीं किया जा सकता, लेकिन ऐसा करना कोई आसान काम नहीं है।
तो, अब हमें जो कहना है, वह दुनिया भर के उन सबसे उन्नत क्रांतिकारी कार्यकर्ताओं और युवाओं को संबोधित है, जो अभी तक क्रांति से नहीं हिले हैं। क्रांतिकारी पार्टी के निर्माण का कार्य तत्काल शुरू किया जाना चाहिए, अभी! हमने जो भी उदाहरण दिए हैं, वे इस तथ्य की ओर इशारा करते हैं।
भविष्य की एक जन क्रांतिकारी पार्टी के कैडर के निर्माण के लिए समय की आवश्यकता होती है। हमारे पास समय बहुत ज्यादा नहीं है। जिन परिस्थितियों ने पहले बताए गए सभी देशों में क्रांतियों को जन्म दिया, वे हर जगह तेज़ी से परिपक्व हो रही हैं।
यह आश्चर्यजनक है कि इन क्रांतियों को जन्म देने वाली परिस्थितियाँ कितनी समान थीं।
ऊपरी तौर पर, ये दुनिया के सबसे ज़्यादा संकटग्रस्त देश भी नहीं थे। बिल्कुल नहीं। ये इतनी तेज़ी से बढ़ रहे थे कि उन्नत पूँजीवादी देशों के अर्थशास्त्री भी ईर्ष्या से लाल हो जाते।
2010 से 2024 के बीच, 2020 के महामारी वर्ष को छोड़कर, नेपाल में औसतन 4.7 प्रतिशत वार्षिक वृद्धि हुई; केन्या में 5.2 प्रतिशत; और इंडोनेशिया में 5.23 प्रतिशत। श्रीलंका पहले संकट में आया था, लेकिन 2010 से 2018 के बीच, वहाँ भी औसतन 6.43 प्रतिशत प्रति वर्ष की वृद्धि हुई।
लेकिन सतह पर गौर करें, तो आपको क्या मिला? बेहद असमान, ‘बिना रोज़गार वाला विकास’, लगातार गरीबी, और साम्राज्यवादियों को बकाया पहाड़नुमा कर्ज़, जिसे चुकाया भी नहीं जा सकता। शासक वर्ग के लिए सबसे बड़ा ख़तरा, जो कि युवाओं में बढ़ती बेरोज़गारी और किसी भी अच्छे भविष्य का अभाव है, दुनियाभर के अलग-अलग देशों में फिलहाल देखा जा सकता है।
श्रीलंका में, 2021 में युवा बेरोज़गारी 25 प्रतिशत थी, जो औसत दर से चार से पाँच गुना ज़्यादा है। इंडोनेशिया के 4.4 करोड़ युवाओं में से 70 लाख बेरोज़गार हैं। बांग्लादेश में, 25-29 साल के पाँच में से एक से भी कम युवाओं के पास एक साल से अधिक के कॉन्ट्रैक वाली पक्की नौकरी है। महामारी से पहले, बांग्लादेश में 39 प्रतिशत स्नातक बेरोज़गार थे।
जैसा कि एक केन्याई युवक ने कहा, “हमारे पास न तो कोई नौकरी है और न ही कोई भविष्य, इसलिए हमारे पास आपको उखाड़ फेंकने के लिए दुनिया भर का समय है, और आपसे लड़कर खोने के लिए कुछ भी नहीं।”
क्या ये इन देशों की अनूठी विशेषताएँ हैं? नहीं। ये दुनियाभर के कई देशों की स्थितियों से काफ़ी मिलती-जुलती हैं।
2023 तक, 70 करोड़ की कुल आबादी वाले 21 देश दिवालिया हो चुके थे या दिवालिया होने के कगार पर थे। दुनिया भर में 3 अरब लोग ऐसे देशों में रहते हैं जो स्वास्थ्य सेवा या शिक्षा पर खर्च करने की तुलना में कर्ज़ के ब्याज पर ज़्यादा खर्च करते हैं।
‘अच्छे समय’ के दौरान भी, आम जनता संघर्ष कर रही थी। यह ख़ास तौर पर ग़रीब और तथाकथित मध्यम-आय वाले देशों के लिए सच है, जिनके पास कोविड-19 महामारी से उपजे संकट के कहर को झेलने के लिए ज़रूरी भंडार नहीं था।
जब 2022 में श्रीलंका में क्रांति आई, तो हमने भविष्यवाणी की थी कि एक के बाद एक देशों में ऐसी ही घटनाएँ घटेंगी क्योंकि उनका बुनियादी आर्थिक और राजनैतिक ढांचा एक जैसा है। और ऐसा ही हुआ भी, और हम पूरे विश्वास के साथ भविष्यवाणी करते हैं कि देशों की यह लंबी सूची अभी पूरी नहीं हुई है। भारत और पाकिस्तान के शासक वर्ग – और उनके कई ‘भाई-भतीजे’! – इन दृश्यों को देखकर काँप रहे होंगे।
यह क्रांतिकारी लहर ग़रीब, कम विकसित देशों में शुरू हुई है, लेकिन यह सिर्फ़ उन्हीं तक सीमित नहीं रहेगी। जैसा कि लियोन ट्रॉट्स्की ने समझाया था, “गठिया छोटी उंगली या बड़े पैर के अंगूठे से शुरू होता है, लेकिन एक बार शुरू होने के बाद यह हृदय तक पहुँचता जाता है।”
यूरोप की सरहद पर, सर्बिया में, क्रांति की लपटें पहले से ही धधक रही हैं, और फ्रांस में ‘ब्लोक्वोंस टाउट’ आंदोलन दर्शाता है कि क्रांति वास्तव में हृदय तक पहुँचेगी। दुनिया जल रही है, और क्रांतिकारी विस्फोट आम बात हैं। हमें इस तथ्य को, और इससे संबंधित हर महत्व को एक ज़िम्मेदारी के रूप में लेना होगा, जिससे क्रांतिकारियों के रूप में हम तत्काल निर्माण करना शुरू कर दें।
यह लेख marxist.com पर 19 सितम्बर को प्रकाशित एक निबंध का यथार्थ अनुवाद है।
