नेपाल में प्रदर्शनकारियों ने संसद, सर्वोच्च न्यायालय, राजनैतिक दलों के अधिकारियों और वरिष्ठ राजनेताओं के घरों में आग लगा दी है। प्रधानमंत्री और कई कैबिनेट मंत्री इस्तीफ़ा दे चुके हैं। राजनेताओं को सेना उनके घरों से बचा कर बाहर ला रही है। वर्षों तक क्रूर गरीबी झेलने के बाद, नेपाली युवा ऐसा अत्याचार नहीं सहेंगे — वे इतिहास के मंच पर प्रवेश कर चुके हैं।
कार्ल मार्क्स ने एक बार लिखा था कि पूंजीवाद में, “जब एक सामाजिक ध्रुव पर धन का संचय होता है, उसी समय और उसी के कारण, विपरीत ध्रुव पर दुख, श्रम की पीड़ा, गुलामी, अज्ञानता, क्रूरता और मानसिक पतन का संचय होता है।” नेपाल इस प्रक्रिया का एक प्रत्यक्ष उदाहरण है।
देश में औसत आय 1,400 अमेरिकी डॉलर प्रति वर्ष है (लगभग 1,95,000 नेपाली रुपए या 1,20,000 भारतीय रुपए)। करीब पाँच में से एक व्यक्ति गरीबी में जी रहा है। इसके अलावा, सामान्य बेरोज़गारी दर 10.7 प्रतिशत और युवा बेरोजगारी दर 20 प्रतिशत है। शीर्ष 10 प्रतिशत परिवारों के पास 40 प्रतिशत ज़मीन है, जबकि आबादी के एक बड़े हिस्से के पास बहुत कम या बिल्कुल भी ज़मीन नहीं है।
इस विकट परिस्थिति के कारण प्रतिदिन लगभग 1,000 लोग विदेश में काम की तलाश में देश छोड़कर जा रहे हैं, और यह आंकड़ा कुल मिलाकर लगभग 20 लाख हो चुका है। ऐसे व्यक्ति नेपाल के कुल सकल घरेलू उत्पाद का 26 प्रतिशत धन अपने घर वापस भेजते हैं — आधे नेपाली परिवार विदेश में रहने वाले रिश्तेदारों से मिलने वाली आर्थिक मदद पर निर्भर हैं।
एक ओर आम जनता गुज़ारा करने के लिए संघर्ष कर रही है, और दूसरी ओर देश में कुछ विशेषाधिकार प्राप्त लोग ऐसी ज़िंदगी जी रहे हैं जिसके हममें से ज़्यादातर लोग केवल सपने ही देख सकते हैं। इसके कारण भारी आक्रोश पैदा हो चुका है, जो हाल के दिनों में सोशल मीडिया पर चल रहे एक ट्रेंड में भी दिखाई दिया है। टिकटॉक पर एक के बाद एक वीडियो सामने आए हैं जो लघुसंख्यक अमीरों और बहुसंख्यक जनता के जीवन के बीच के अंतर को दर्शाते हैं। ऐसे वीडियो ख़ास तौर पर तथाकथित ‘नेपो बेबीज़’ पर केंद्रित है: राजनेताओं और व्यापारियों के बच्चे जो ऐश और आराम की जिंदगी जी रहे हैं।
जिन पर भ्रटाचार के आरोप लगे हैं, उनमें से एक सत्तारूढ़ नेपाली कांग्रेस के राजनेता बिंदु कुमार थापा हैं। एक तस्वीर में इनका बेटा एक क्रिसमस ट्री के बगल में खड़ा है — यह क्रिसमस ट्री पत्तियों से नहीं, बल्कि लुई वुइटन, गुच्ची और कार्टियर के सामान से बना है!
यह तस्वीर हैशटैग #PoliticiansNepoBabyNepal के साथ वायरल है। इसी तरह, सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश गोपाल पराजुली के बेटे का एक वीडियो है जिसमें कई कारें और महंगे रेस्टोरेंट दिखाई देते हैं। किसी ने इस वीडियो को शेयर करते हुए कैप्शन डाला कि: “सोशल मीडिया पर खुलेआम लग्ज़री कारों और घड़ियों का प्रदर्शन हो रहा है। क्या अब हम इनसे थक नहीं चुके हैं?”
हाल के दिनों में अनगिनत हाई-प्रोफाइल घोटाले हुए हैं, जिन्होंने नेपाली समाज के शीर्षस्थ लोगों के भारी भ्रष्टाचार को उजागर किया है। पिछले ही साल, यह ख़बर सामने आई थी कि 2017 में कई शीर्ष अधिकारियों ने एयरबस के साथ हुए एक सौदे में एक करोड़ डॉलर से अधिक तक का गबन किया है।
पिछले साल कई पूर्व कैबिनेट मंत्रियों पर ‘भूटानी शरणार्थी घोटाले’ के आरोप भी लगे थे। इस घोटाले में गरीब नेपाली लोगों से भारी मात्रा में पैसा लूटना शामिल था। रोज़गार के लिए तत्पर नेपाली लोगों को सरकार ने भूटानी शरणार्थी बताया ताकि उन्हें काम के लिए अमेरिका भेजा जा सके। सत्ताधारी वर्ग द्वारा आम लोगों के संसाधनों की लूट के ऐसे अनगिनत उदाहरण हैं।
सोशल मीडिया पर प्रतिबंध
इसी संदर्भ में, गुरुवार 4 सितंबर को सरकार ने व्हाट्सएप, फेसबुक, इंस्टाग्राम और यूट्यूब सहित 26 सोशल मीडिया कंपनियों पर प्रतिबंध लगा दिया।
यह दावा किया गया था कि इस कदम का मकसद “फर्जी समाचार”, “घृणास्पद भाषण” और “ऑनलाइन धोखाधड़ी” से निपटना है। बदमाशों और गुंडों की इस सरकार ने दावा किया कि फर्जी आईडी वाले लोग “साइबर अपराध” कर रहे हैं और “सामाजिक सद्भाव को बिगाड़ रहे हैं”। सोशल मीडिया कंपनियों से मांग की कि वह देश में एक अफसर नियुक्य करें जो इन तथाकथित समस्याओं पर काबू करे — कंपनियों के इंकार के बाद, उन्हें देश में प्रतिबंधित कर दिया गया।
इन बहानों की असलियत तुरंत सामने आ गई: लोकतांत्रिक अधिकारों के दमन को छिपाने के लिए इस्तेमाल किए गए बेशर्म झूठ!
क्योंकि नेपाल की लगभग 8 प्रतिशत आबादी विदेश में रहती है, इस जल्दबाज़ कदम का सोचा–समझा इरादा यह था कि नेपाली लोग अपने प्रियजनों से किसी भी तरह का संपर्क न कर पाएं।
फ्रेडरिच एंगेल्स ने बुर्जुआ लोकतंत्र को पूंजीवाद का सर्वोत्तम संभव ढांचा बताया था क्योंकि बुर्जुआ लोकतंत्र आम लोगों को यह झूठा विश्वास दिलाता है कि उनके पास परिस्थितियों को बदलने का मौका है। हालाँकि वास्तव में बुर्जुआ लोकतंत्र के ढांचे को एकजुट रखने के लिए सत्ताधारी वर्ग जनता को कुछ अधिकार मजबूरन दे देता है, यदि जनता को देने के लिए रोटी ही न हो तो सरकारों को स्पष्ट रूप से विरोध को रोकने के लिए लोकतांत्रिक अधिकारों को सीमित करने का सहारा लेना पड़ता ही है। यही नेपाल में हुआ।
घटनाएं
सोमवार 8 सितंबर को सुबह 9 बजे एक कार्यक्रम आयोजित किया गया, जिसका उद्देश्य, एक आयोजक के अनुसार, “सांस्कृतिक कार्यक्रमों और मौज-मस्ती के साथ–साथ एक शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन” करना था। हालाँकि यह प्रदर्शन सोशल मीडिया पर प्रतिबंध के कारण शुरू हुआ था, प्रदर्शनकारियों का गुस्सा सरकार के इस एकमात्र “उपाय” से कहीं आगे तक बढ़ चुका था। जैसा कि एक प्रदर्शनकारी बताते हैं, “सोशल मीडिया पर प्रतिबंध हटवाने के बजाय,” प्रदर्शनकारियों का मुख्य उद्देश्य “भ्रष्टाचार को रोकना” था।
एक प्रदर्शनकारी, आयुष बसयाल ने बताया कि वहाँ बड़ी संख्या में युवा मौजूद थे। उन्होंने कहा कि वे श्रीलंका और बांग्लादेश में हो रहे विरोध प्रदर्शनों, और देश की भयंकर असमानताओं को उजागर करने वाले टिकटॉक वीडियो से काफ़ी प्रेरित थे। एक अन्य प्रदर्शनकारी ने कहा कि वह वहाँ इसलिए आए थे क्योंकि वह “हमारे भविष्य के लिए खड़े हैं”। वह चाहते थे कि देश “भ्रष्टाचार मुक्त हो ताकि सभी को शिक्षा, अस्पताल, चिकित्सा [सुविधाएँ…] आसानी से मिल सकें और उनका भविष्य उज्ज्वल हो।”
काफी समय से, नेपाली समाज में निराशा और आक्रोश बढ़ रहा है।
बढ़ते माओवादी विद्रोह के बाद, 2006 में एक बड़ा आंदोलन हुआ था, जिसके कारण दो सौ साल पुरानी राजशाही का अंत हुआ — दो साल बाद औपचारिक तौर पर भी राजशाही को समाप्त कर दिया गया। तब से, 14 अलग-अलग सरकारें आ चुकी हैं, जिनमें से किसी ने भी न ही आम जनता के जीवन स्तर में सुधार किया, और न ही अपने पाँच साल का कार्यकाल पूरा किया।
नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी (संयुक्त मार्क्सवादी-लेनिनवादी) के प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली, जो इस्तीफा दे चुके है, पाँच साल में पाँचवें प्रधानमंत्री थे, और उनकी सरकार एक बुर्जुआ पार्टी के साथ गठबंधन में थी। 2008 से नेपाली राजनीति में यह एक सामान्य बात हो चुकी है। मुख्य विपक्षी पार्टी, नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी केंद्र), राजशाही पार्टी के साथ एक गठबंधन में 2022 तक सत्ता मे थी!
नेपाल में कई तथाकथित कम्युनिस्ट पार्टियाँ हैं, लेकिन जब भी इनमें से कोई भी सत्ता में आता है, सभी केवल पूँजीवादी और शासक वर्ग की ज़रूरतों को पूरा करने में लग जाते हैं। इसके अलावा, बाकी सत्ताधारियों की ही तरह, उनके भी अपने ‘भाई-भतीजावाद’ और ‘नेपो बेबीज़’ हैं। माओवादी केंद्र पार्टी के नेता पुष्प कमल दहल की पोती ने हाल ही में एक बड़ी और भव्य शादी करके नेपाली मज़दूरों और युवाओं का गुस्सा भड़काया था। इस सब की वजह से जनता की नज़रों में उनकी साख गिर चुकी है।
राजशाही का तख्तापलट एक बड़ा कदम था, लेकिन जहाँ तक आम, बहुसंख्यक नेपालियों के जीवन स्तर का सवाल है, इस में वास्तव में कोई बदलाव नहीं आया है। इसलिए, बढ़ते गुस्से, अविश्वास और हताशा ने नेपाली समाज को ज्वलनशील बना दिया था। बस एक चिंगारी की ज़रूरत थी, जो 8 सितंबर को मिल गई।
द न्यू यॉर्क टाइम्स ने बताया कि कैसे हज़ारों युवा संसद पर कूच करने निकल आए, बावजूद कि पुलिस उन्हें रोकने के लिए तैनात कर दी गई थी। प्रदर्शनकारियों ने देखा कि “संसद के सदस्य इमारत की छत से [उन्हें] देख रहे थे”।
कुछ दिन पहले, प्रधानमंत्री ओली ने कहा था कि प्रदर्शनकारी “स्वतंत्र रूप से सोच ही नहीं सकते, तो वे स्वतंत्रता की बात क्या करेंगे?” ज़्यादातर प्रदर्शनकारियों को भ्रष्ट और निष्क्रिय राजनेताओं की ऐसी हास्यास्पद उक्तियों ने और भी आक्रोशित किया। प्रदर्शनकारियों की भीड़ बस एक अच्छा जीवन स्तर चाहती थी, लेकिन उनके साथ नासमझ मूर्खों जैसा व्यवहार किया जाता रहा। एक अनाम प्रदर्शनकारी के अनुसार, इसकी वजह से भीड़ में एक “ज़बरदस्त” गुस्सा “भड़क गया”।

भीड़ उफन उठी। उन्होंने कंटीली तारों को तोड़ दिया, और पुलिस को संसद भवन को घेरते हुए पीछे हटने पर मजबूर होना पड़ा। पुलिस ने जवाब में आंसू गैस और पानी की बौछारें छोड़ीं, लेकिन वे संख्या में कम थे और भीड़ को रोकने में असमर्थ साबित हुए। “दोपहर 1 बजे तक, विरोध स्थल पर अफरा-तफरी मच गई”, आंसू गैस के गोले और रबर की गोलियां प्रदर्शनकारियों के सिर और शरीर पर लगती रहीं।
एक अन्य प्रदर्शनकारी ने बताया कि उन्होंने किसी को “पुलिस पर चिल्लाते हुए देखा और दो सेकंड बाद वह ज़मीन पर गिरकर मर गया”। पुलिस ने भीड़ पर गोलियां चलाकर स्थिति को और बिगाड़ दिया।
गुस्से को शांत करने के बजाय, पुलिस के दमन ने लोगों को और उकसा दिया। प्रदर्शनकारियों के हाथों में जो कुछ भी था, उससे ही उन्होंने जवाबी कार्रवाई शुरू कर दी, चाहे वह पेड़ों की टहनियाँ हों या पानी की बोतलें। कुछ लोग अंत में संसद भवन में घुसने में कामयाब रहे। अधिकारियों की क्रूर दमन–नीतियों के बावजूद विरोध आंदोलन काठमांडू से आगे बढ़कर विराटनगर, भरतपुर और पश्चिमी नेपाल के पोखरा तक फैल गया। अनुमानों के हिसाब से कुल मिलाकर 19 लोग मारे जा चुके हैं और 400 से ज़्यादा घायल हो चुके हैं।
पूरी तरह से घबराई हुई सरकार ने फिर कर्फ्यू लगाने की कोशिश की, ताकि लोगों को संसद और अन्य सरकारी इमारतों के बाहर इकट्ठा होने से रोका जा सके। इस आदेश की पूरी तरह से अनदेखी की गई। उसी शाम, प्रदर्शनकारी संसद और सरकारी इमारतों के बाहर जमा हो गए। जैसा कि एक 23 वर्षीय प्रदर्शनकारी ने बताया, “सरकार ने लगभग 20 लोगों की हत्या कर दी”। इसलिए, अब समय आ गया था कि हत्यारों को “ज़िम्मेदारी लेनी” चाहिए।
जैसे बारूद में विस्फोट होता है, वैसे ही जनता का दबा हुआ गुस्सा फूट पड़ा। हर छूटा हुआ खाना, हर महीने देर से मिलने वाला वेतन, शासक वर्ग की दौलत का हर वीडियो, एक ज़बरदस्त राजनैतिक गुस्से में बदल गया और वे अत्याचार का नैतिक बदला लेने के लिए निकाल आए।
संसद पर धावा बोलने में कामयाब होने के बाद, प्रदर्शनकारियों ने उसे जला कर राख कर दिया। सभी पार्टियों के कार्यालयों को जला कर जनता ने यह जनादेश दे दिया कि वे पिछले दो दशकों की आर्थिक और राजनैतिक नाकामी की सज़ा सभी राजनैतिक दलों को देगी। व्यवस्थित भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने वाली न्याय व्यवस्था पर हमला करते हुए उन्होंने सुप्रीम कोर्ट को आग लगा दी। भ्रष्टाचार का बदला लेने के लिए प्रधानमंत्री और अन्य राजनेताओं के घरों को भी आग के हवाले कर दिया गया। यह जानकर कि सेना राजनेताओं को हेलीकॉप्टर से बचाकर निकाल रही है, वे हवाई अड्डे में घुस गए और उसे भी जला डाला। रात की घटनाओं ने दिखा दिया कि जब जनता आगे बढ़ती है, तो दुनिया की कोई भी ताकत उसे रोक नहीं सकती।
घबरा कर राज्य मंत्री पीछे हट गए — जब उन्हें एहसास हुआ कि वे विरोध प्रदर्शनों को बल प्रयोग से रोक नहीं पा रहे हैं, तो उन्होंने रियायतें देने की कोशिश की। समझौता करने के लिए सरकार ने सोशल मीडिया पर प्रतिबंध हटा लिया, “हिंसा की जाँच” के लिए एक समिति बनाने और यहाँ तक कि “मृतकों के परिवारों को राहत राशि देने” और “घायलों के मुफ़्त इलाज” का भी वादा कर दिया। मगरमच्छ के आँसुओं की बाढ़ में, प्रधानमंत्री ओली ने कहा कि उन्हें इन मौतों पर “गहरा दुख” है। लेकिन विरोध प्रदर्शन जारी रहे।
जब कोई क्रांतिकारी आंदोलन तेज़ी से आगे बढ़ता है, तो उसे रोकना असंभव सा ही होता है। अगर सरकार दमन का प्रयास करती है, तो इससे जनता और भी नाराज़ हो जाती है। दमन जनता को और बढ़–चढ़कर कार्रवाई करने के लिए उकसाता है। घबराए हुए शासक वर्ग से रियायतें और वादे प्राप्त करने के बाद जनता की कार्रवाई को बढ़ावा ही मिलता है; आख़िरकार, क्रांतिकारी आंदोलन से परिणाम मिलने शुरू हो चुके होते है!
पूंजीपति वर्ग और सरकार, दोनों ही अँधेरे में थे। सरकार के कई मंत्रियों ने डूबते जहाज़ से भागते चूहों की तरह इस्तीफ़ा दे दिया। इसके अलावा, प्रधानमंत्री की अपनी पार्टी में भी बेचैनी थी। इस पार्टी को नेपाल की ‘कम्युनिस्ट’ पार्टी (संयुक्त मार्क्सवादी-लेनिनवादी) कहा जाता है, लेकिन सत्ता में रहते हुए इस पार्टी ने सिर्फ़ पूँजीवादी व्यवस्था के प्रबंधन में ही हिस्सा लिया है।
स्थानीय और केंद्रीय नेतृत्व के स्तर पर पार्टी के कई सदस्यों ने इस घटना के विरोध में इस्तीफ़ा देना शुरू कर दिया है। कुछ लोगों की अंतरात्मा की आवाज़ हो सकती है, लेकिन कुछ ने स्पष्ट रूप से जनता के गुस्से के डर से ही इस्तीफ़ा दिया है।
आखिरकार, मंगलवार सुबह प्रधानमंत्री ओली ने हार मान ली। उन्होंने स्पष्ट कर दिया कि “देश में प्रतिकूल परिस्थितियों को देखते हुए”, वह “संविधान के अनुसार राजनैतिक रूप से” मामलों को “हल” करने के लिए इस्तीफ़ा दे रहे हैं। वास्तव में, यह स्वैच्छिक इस्तीफ़ा नहीं था। उन्हें सेना द्वारा हेलीकॉप्टर से निकाला जाना पड़ा था।
यह एक शानदार जीत है। नेपाल की जनता ने दमनकारी ताकतों का सामना किया, सरकार को अपनी नीतियों को पलटने के लिए मजबूर किया, और फिर सरकार को ही गिरा दिया।
हालाँकि इस बात पर ज़ोर देना ज़रूरी है कि जनता की ये फतह एक लंबे संघर्ष में पहली लड़ाई की जीत है। पूरा युद्ध जीतने के लिए अनेकों लड़ाइयां को जीतना पड़ेगा। नेपाली जनता के दुश्मन अपने ज़ख्मों को चाट रहे हैं और फिर से संगठित हो रहे हैं। राष्ट्रपति, जो पद पर बने हुए हैं, ‘राष्ट्रीय एकता’ का आह्वान कर चुके हैं। उन्होंने “प्रदर्शनकारी नागरिकों सहित सभी से, स्थिति के शांतिपूर्ण समाधान के लिए सहयोग करने” का आग्रह किया है। उन्होंने “सभी पक्षों से संयम बरतने” की अपील की। राष्ट्रपति राष्ट्रीय एकता की बात करते हैं, लेकिन नेपाल में अमीर और गरीब एक ही राष्ट्र का हिस्सा नहीं हैं — घोर असमानता को देखते हुए, ये कहना ठीक होगा कि अमीर किसी और ही ग्रह पर रहते हैं!
इसके अलावा, नेपाली सेना ने पूरे देश में कर्फ्यू का आदेश दिया है और बयानों को जारी कर लोगों से “संयम बरतने” का आग्रह भी किया है। राष्ट्रपति और सेना को खुद प्रदर्शनकारियों से संयम बरतने की विनती करनी पड़ रही है — यह इस बात का सबूत है कि स्थिति पर उनका नियंत्रण नहीं है। दरअसल, जैसा कि एक पत्रकार ने बताया, कुछ समय के लिए ऐसा लग रहा था कि “कोई भी सत्ता में नहीं है”। दमनकारी ताकतें जनता को रोक नहीं पाईं, लेकिन यह भी सच है कि जनता की इस बुनियादी राजनैतिक शक्ति को निर्देशित और एकत्रित करने वाला कोई संगठन अभी मौजूद नहीं है।
कल शाम, सुरक्षा बलों ने “व्यवस्था और स्थिरता बहाल करने के लिए बातचीत के माध्यम से शांतिपूर्ण समाधान” का एक संयुक्त आह्वान जारी किया। जैसा कि मार्क्स ने समझाया था, अंततः राज्य निजी संपत्ति की रक्षा के लिए सशस्त्र व्यक्तियों के समूह के अलावा और कुछ नहीं है। राज्य के अधिकारियों, पुलिस प्रमुखों और बड़े नौकरशाहों को पूंजीपति वर्ग के हितों का प्रतिनिधित्व करने के लिए सावधानीपूर्वक चुना और प्रशिक्षित किया गया है, न इससे ज़्यादा और न इससे कम।
नेपाल में बदलाव के लिए संघर्ष कर रहे लोगों को सेना, सरकार और पूंजीपतियों की बातों पर गौर करना चाहिए। वे क्या चाहते हैं? क्या वे भ्रष्टाचार खत्म करना चाहते हैं? या क्या वे नेपाल की संपत्ति का उपयोग आम लोगों की सामाजिक उन्नति के लिए करना चाहते हैं? नहीं! वे “व्यवस्था और स्थिरता बहाल करना” चाहते हैं। दूसरे शब्दों में, वे रविवार 7 सितंबर वाली स्थिति में वापस जाना चाहते हैं, शायद सरकार के उच्चतम स्तर पर लोगों को बदलकर। इसका मतलब होगा वही गरीबी, वही बेरोजगारी और वही भ्रष्टाचार!
इसमें एक और पहलू भू-राजनैतिक स्थिति है। नेपाल को अलग-थलग करके नहीं देखा जा सकता। पूरे क्षेत्र में एक और किस्म का सत्ता संघर्ष चल रहा है — भारत पारंपरिक रूप से नेपाल पर हावी होने वाली मुख्य शक्ति रहा है, लेकिन प्रधानमंत्री ओली को चीन के करीब माना जाता था। उनके हटने के बाद, साम्राज्यवादी शक्तियाँ ‘अपने आदमी’ को सत्ता में लाने के लिए चक्कर लगाएँगी।
आगे क्या?
हाल के दिनों में काठमांडू के मेयर बालेंद्र शाह प्रमुखता से राजनैतिक क्षेत्र में उभरे हैं। भ्रष्टाचार के खिलाफ गाने बनाने वाले एक हिप-हॉप कलाकार के रूप में प्रसिद्धि पाने वाले बालेंद्र शाह 2022 में सभी राजनैतिक दलों के खिलाफ खड़े होकर चुनाव जीते थे।

वह इसलिए जीते क्योंकि उन्हें एक ‘बाहरी’ उम्मीदवार के रूप में देखा जाने लगा था। उन्होंने भी जनता से “संयम” बरतने का आह्वान किया है। उनका कहना है कि जनता की जीत पहले से ही नज़दीक है क्योंकि “आपके हत्यारे ने इस्तीफा दे दिया है”। आगे से, उनका कहना है, “यह आपकी पीढ़ी है जिसको देश का नेतृत्व करना चाहिए।”
इसी तरह, सुधन गुरुंग नामक एक अन्य रैपर द्वारा गठित हामी नेपाल नामक गैर-सरकारी संस्था ने मांगों की एक सूची जारी की है। इनमें यह चार मांगें शामिल हैं:
“पहली – इस सरकार का तत्काल इस्तीफा।
“दूसरी – हर प्रांत के सभी मंत्रियों का इस्तीफा।
“तीसरी – हमारे निर्दोष भाइयों और बहनों पर गोली चलाने का आदेश देने वालों पर जल्द-से-जल्द और बिना किसी छूट के मुकदमा चलाया जाए।
“चौथी – युवाओं के नेतृत्व में एक अंतरिम सरकार का गठन, जिसका दृष्टिकोण एक न्यायपूर्ण और जवाबदेह भविष्य को बनाने का हो।”
नेपाल की घटनाओं से प्रेरित होने वाले किसी भी व्यक्ति से यह कहना ज़रूरी है: यह काफ़ी नहीं है! यह बहुत अच्छी बात है कि नेपाली जनता ने बांग्लादेश और श्रीलंका में हुई घटनाओं से प्रेरणा ली है। हालाँकि, प्रेरणा के साथ-साथ, ये उदाहरण एक कड़ी चेतावनी भी देते हैं। दुखद तथ्य यह है कि श्रीलंकाई और बांग्लादेशी जनता की अद्भुत बहादुरी और क्षमता के बावजूद, इन देशों में वास्तव में कुछ भी नहीं बदला है।
बांग्लादेश में भी गरीबी, उत्पीड़न और असमानता के खिलाफ युवाओं के नेतृत्व में एक आंदोलन चला था। इस आंदोलन ने शेख हसीना की सरकार को गिरा दिया था, जिसके बाद क्रांति के कई नेताओं को सरकार में लाया गया। सरकार में चेहरे तो बदल गए, लेकिन पूंजीवाद से कोई नाता नहीं टूटा — इसका मतलब है कि देश में गरीबी, उत्पीड़न और असमानता कम नहीं हुई।
मूल रूप से, पूंजीवादी व्यवस्था ही जनता की परेशानियों की जड़ है। यह खास तौर पर ऐसे देशों में सच है जो आर्थिक रूप से उन्नत नहीं हैं और साम्राज्यवाद से पीड़ित हैं।
जैसा कि एक प्रदर्शनकारी ने सही कहा है, “सिर्फ़ प्रधानमंत्री का इस्तीफ़ा काफ़ी नहीं है”। अब समय आ गया है कि विभिन्न राष्ट्रीय दलों के सत्ता में आने और जनता के लिए कुछ भी बुनियादी तौर पर न बदलने के “चक्र को तोड़ा जाए”।
अंततः विजयी होने के लिए, नेपाली जनता को पूँजीवाद को उखाड़ फेंकना होगा। नेपाली जनता को इस बात से संतुष्ट नहीं होना चाहिए कि इस आंदोलन के कुछ नेताओं को नई सरकार में लाने से आम लोगों के जीवन में बदलाव होगा।
नेतृत्व की आवश्यकता
नेपाल, श्रीलंका, बांग्लादेश और इंडोनेशिया, ये सभी पिछले कुछ वर्षों में हुई क्रांतियों के उदाहरण हैं। सामान्य परिस्थितियों में, अधिकांश आबादी राजनीति पर ध्यान नहीं देती। या तो उनके पास लंबे काम के घंटों के बाद समय नहीं होता, या उनका मन हार जाता है (क्योंकि कुछ भी कभी बदलता हुआ नहीं दिखता) — आमतौर पर इन दोनों का संयोग एक साथ काम करता है।
कई बार जनता का गुस्सा इतना बढ़ जाता है कि वे सभी बाधाओं को तोड़कर सीधे राजनीति में शामिल हो जाते हैं — लियोन ट्रॉट्स्की क्रांति को इसी तरह परिभाषित करते हैं।
हालांकि जब जनता पहली बार किसी क्रांति के दौरान राजनैतिक क्षेत्र में प्रवेश करती है, तो वह एक सादगी के साथ ऐसा करती है। जनता बहुत जल्दी कुछ नई चीजें सीख लेती है। जैसे कि उसमें यह समझ आ जाती है कि राज्य निजी संपत्ति की रक्षा में समर्पित एक दमनकारी शक्ति है। वह ऐसा लेनिन की किताब “द स्टेट एंड रेवोल्यूशन” पढ़कर नहीं, बल्कि पानी की बौछारों से छलनी होकर सीखती है।
भी होकर रहेंगी। इसके प्रमाण के लिए आपको इन दिनों केवल समाचार देखने की ज़रूरत है। कोई क्रांति सफल होगी या नहीं, इस बात पर निर्भर करता है कि उसका नेतृत्व सही है या नहीं।
मुश्किल यह है कि जनता हमेशा संघर्ष नहीं करती रह सकती। अपने दोस्तों को रोज़ गोली खाते, आँसू गैस से दम घुटते या पुलिस से डरकर भागते देखना बहुत परेशान करने वाला और हिम्मत तोड़ देने वाला अहसास होता है। इसलिए, अक्सर ऐसा होता है कि जनता समय रहते यह पूरी तरह से समझ नहीं पाती कि आगे बढ़ने का सही रास्ता क्या है।

यहीं क्रांतिकारी नेतृत्व की भूमिका आती है। किसी जगह पर क्रांतिकारी मार्क्सवादी मौजूद हों या न हों, क्रांतियाँ फिर भी होकर रहेंगी। इसके प्रमाण के लिए आपको इन दिनों केवल समाचार देखने की ज़रूरत है। कोई क्रांति सफल होगी या नहीं, इस बात पर निर्भर करता है कि उसका नेतृत्व सही है या नहीं।
अगर नेपाल में इस समय एक सच्ची कम्युनिस्ट पार्टी होती जिसकी जड़ें जनता में हों और जो इतनी बड़ी हो कि जनता उसकी बात सुन सके, तो पूरी स्थिति बदल सकती थी। एक कम्युनिस्ट पार्टी एक प्रेरणा का काम कर सकती थी जो जनता के बीच रहकर जनता के सीखने की प्रक्रिया को तेज़ कर सकती थी। एक–एक कदम कर, वे मज़दूर वर्ग का नेतृत्व और विश्वास जीत सकते थे और जनता को सत्ता तक पहुँचा सकते थे।
मूलतः नेपाल में हमने जो देखा है वह रूस में 1917 की फरवरी क्रांति जैसा ही है। जनता ने प्रधानमंत्री को उखाड़ फेंककर अपनी शक्ति का प्रदर्शन किया है। लेकिन वे अभी भी पूँजीवाद को पूरी तरह से उखाड़ फेंकने के लिए पर्याप्त रूप से जागरूक नहीं दिखाई देते। नेपाल के इस क्रांतिकारी दौर में जिस चीज़ की कमी है वह एक बोल्शेविक पार्टी है जो जनता को पूँजीवादी व्यवस्था को उखाड़ फेंकने के लिए प्रेरित कर सके।
हालाँकि जनता को आगे का रास्ता नहीं पता, फ़िलहाल शासक वर्ग इस आंदोलन को न तो दमन के ज़रिए और न ही रियायतों के ज़रिए दबा पा रहा है। अगर यहां कोई बड़ी और असली कम्युनिस्ट पार्टी होती जो जनता का नेतृत्व कर सके, ऐसी पार्टी मज़दूरों और किसानों से हर कस्बे और मोहल्ले में जाकर इस तथाकथित “जेनरेशन ज़ी क्रांति” के समर्थन में समितियाँ बनाने का आह्वान करती। अगर इनमें से हर समिति एक राष्ट्रीय समिति के लिए प्रतिनिधियों का चुनाव करती, तो यह एक बिल्कुल अलग तरह की सरकार बनाने की तरफ पहला कदम होता। इस भ्रष्ट व्यवस्था को चलाने वाले राजनेताओं के समूह को बदलने के बजाय, एक मज़दूर सरकार बनाई जा सकती थी। अगर ऐसा हुआ होता, तो वे आसानी से इंडोनेशिया या भारत के मज़दूरों और किसानों से भी ऐसा ही करने का आह्वान कर सकते थे। इससे पूरा एशियाई महाद्वीप क्रांतियों में उफन उठता। दुनिया भर के क्रांतिकारियों को नेपाल पर कड़ी नज़र रखनी चाहिए। नेपाल के एक पत्रकार ने कहा कि जो कुछ हुआ है उससे हर कोई “हैरान और स्तब्ध” है। किसी ने “सोचा नहीं था कि यह इस स्तर तक बढ़ जाएगा।” अगर आज के समय का कोई आदर्श वाक्य है तो वो यह है कि अनपेक्षित की अपेक्षा करें। दुनिया भर के लगभग हर देश में इस समय जीवन स्तर पर भारी दबाव है। राजनैतिक संस्थाओं और नेताओं के प्रति घृणा है। साथ ही साथ, मज़दूरों की कोई बड़ी हार याद नहीं आती। हम ठीक-ठीक नहीं जान सकते कि अगला क्रांतिकारी विस्फोट कहाँ और कब होगा। लेकिन नेपाल में जो हालात हैं, वे दुनिया के अधिकांश हिस्सों में अभी भी मौजूद हैं। आज का नेपाल कल भारत, ब्रिटेन, फ्रांस, अमेरिका और अन्य जगहों जैसा होगा। क्रांतियाँ अपेक्षित हैं। उनकी सफलता इस बात पर निर्भर करेगी कि क्या समय रहते ऐसी क्रांतिकारी पार्टियाँ बन पाएंगी जो उन्हें विजय की ओर ले जाएँ।
यह लेख marxist.com पर 10 सितम्बर को प्रकाशित एक निबंध का यथार्थ अनुवाद है।
